राजेश जोशी
नरेश सक्सेना की कविता की पंक्तियां हैं सेनाएं जब सेतु से गुजरती हैं तो सैनिक अपने कदमो की लय तोड़ देते हैं क्योंकि इससे सेतु केट्रट जाने का खतरा उठ खड़ा होता है।
यह शायद पहला मौका है जब किसी कवि को चंद दिनों के अंदर एक के बाद प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रतिष्ठित 'भवभूति अलंकरण-2019' से नवाजा एक देश के कई विशिष्ट सम्मानों से नवाजे जाने की घोषणा हुई है। गौरतलब जाएगा। साहित्य में योगदान के लिए हर वर्ष देश के किसी वरिष्ठ लेखक को यह है कि वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना को साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' की ओर से सम्मान दिया जाता है। साथ ही मीरा फाउंडेशन और साहित्य भंडार इलाहाबाद वर्ष 2019 के 13वें उदयराज सिंह स्मृति सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है। ओर से भी उन्हें 'मीरा स्मृति सम्मान-2019' से सम्मानित किये जाने की घोषणा एक दिसंबर को उन्हें एक लाख रुपये नकद पुरस्कार समेत सम्मान पत्र, स्मृति हुई है। इस मौके पर वरिष्ठ कवि राजेश जोशी की एक टिप्पणी, जो हमारे समय चिह्न देकर नवाजा जाएगा। इसके अलावा 13 अक्टूबर को भोपाल में उन्हें मध्य के महत्वपूर्ण कवि नरेश सक्सेना के कृतित्व की एक बानगी पेश करती है। राजेश जोशी नरेश सक्सेना की एक कविता 'सेतु' की पंक्तियां हैं सेनाएं जब सेतु से गुजरती हैं तो सैनिक अपने कदमों की लय तोड़ देते हैं क्योंकि इससे सेतु केट्रट जाने का खतरा उठखड़ा होता है। नरेश सक्सेना उन कवियों में हैं जिन्होंने नवगीत और फ्रीवर्स के बीच एक सेतु बनाया। नरेश इस बात को जानते थे कि इस सेतु पर गुजरने के लिए लय को तोड़ना ज़रूरी है। उन्होंने नवगीत की लय का विस्तार नहीं किया, उसे तोड़ा, उसे बदला। उनकी कविता वस्तुतः गीत और फ्रीवर्स की कविता के बीच सम्बंध और उसके फ़र्क का सबूत है। उनकी कविता में आंतरिक लय उसकी एक बड़ी ताक़त है। उन्हीं के शब्दों में लय की इस ताक़त को मेरे शत-शत प्रणाम। एक ऐसे समय में जब कविता में आधुनिकतावादी आग्रहों के चलते कुछ वरिष्ठ और उनका अनुकरण करने वाले युवा कवियों में ठस, उबाऊ और बोझिल गद्यात्मकता को कुछ अतिरिक्त महत्व दिया जा रहा हो, आंतरिक लय का यह आग्रह नरेश सक्सेना की कविता को अलग भी करता है और अधिक सम्प्रेषणीय बनाता है। कविता के प्रति पढ़ने की ललक का पुनर्विष्कार करता है। जो लोग उनकी कविता की आंतरिक लय को बहुत गौर से नहीं देखते, वे इस जानकारी के कारण कि नरेश ने कभी नवगीत लिखे हैं, उनकी कविता की लय और उनके गीतों की लय में फ़र्क नहीं कर पाते। नरेश सक्सेना वस्तुतः गीत से नयी कविता में नहीं आये थे। 'सुनो चारूशीला' की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि 1958 में छपे चार मुक्तकों के बाद (जो मेरी पहली रचना थी) मैंने मुख्यतः गद्य शैली में ही कविताएं लिखी हैं। किन्तु 1962 में एक खास वजह से कुछ गीत लिखे। इस तरह देखें तो नरेश छंद और कविता के बीच आवाजाही करते हैं। इस तरह वह लय को तोड़ते हैं, पुनःरचते हैं और पुनः तोड़ते हैं। नरेश सक्सेना ने कम ही कविताएं लिखी हैं, लेकिन उनकी अधिकांश कविताओं की एक बड़ी खूबी यह है कि वो पाठक या श्रोता की स्मृति में अपनी जगह बना लेती हैं। उनका शीर्षकहो या कुछ पंक्तियां या कविता का मूल आइडिया, कहीं न कहीं पाठक या श्रोता की स्मृति में हमेशा के लिये अटका रह जाता है। मुझे लगता था शायद इसका कारण उन कविताओं की आन्तरिक लय है। हालांकि यह भी एक कारण हो सकता है, लेकिन मुझे लगता है कि कविता के मन में बस जाने का कारण उसका लॉजिक या तर्क है। एक ऐसा तर्क जिसे हम शायद महसूस करते हैं, लेकिन जानते नहीं। या जानते हैं, तो उसे ठीक-ठीक व्यक्त नहीं कर पाते। अमर्त्य सेन का शब्द उधार लेकर कहूं तो कहा जा सकता है कि नरेश सक्सेना की कविता एक आर्ग्युमेन्टेटिव कविता है। जिरह करती कविता । वह हमारे आसपास के जीवन की अति परिचित चीज़ों के भीतर छिपे तर्क को हमारे सामने प्रकट कर देती है। अति परिचित चीज़ों और जीवन दृश्यों में लुके हुए तर्क को वह इस तरह प्रकट करती है कि हम विस्मित हो जाते हैं। कांक्रीट के भीतर हमेशा बची रह जाने वाली जगहों को समझाती कविता। ठोस के भीतर बची हुई स्पेसेस को देखने की दृष्टि नरेश सक्सेना की कविता में है। विज्ञान का तर्क जब काव्य तर्क में रूपांतरित होता है, तो वह अपने अर्थ और अभिप्रायों का विस्तार कर लेता है। यह विस्मय ही उन्हें हमारी स्मृति का स्थायी निवासी बना देता है। विस्मय एक जादुई तत्व है। जादू का जादू जब टूटता है, तो वह एक नयी समझदारी को हमारे भीतर जगा देता है। क्या पुल पर गुजरते हुए और उसके नीचे बहती नदी को देखते हुए हमने यह कभी महसूस नहीं किया होगा कि हम पुल पर से गुजर रहे हैं? लेकिन इसे समझना और फिर शब्दों में जताना अलग बात है। नरेश जैसे हमें पुल पर से गुजरते हुए रास्ते में पकड़ लेते हैं और कहते कि ...पुल पार करने से नदी पार नहीं होती। कोई अचानक अगर यह बात कहे, तो आप पहले तो इस तर्क को समझ ही नहीं पायेंगे और समझेंगे तो मानेंगे नहींलेकिन नरेश सक्सेना की छोटी-सी कविता अपनी चंद पंक्तियों में ही जैसे हमारा सारा विभ्रम तोड़ देती है। वह ताक़त से साथ यह बात हमें समझा देती है कि पुल पार करने से पुल पार होता है। नदी पार नहीं होती। नदी पार नहीं होती, नदी में धंसे बिना। यह तर्कजो जीवनानुभव से प्राप्त हुआ है, एक काव्य तर्क है। इसलिए यह सिर्फ एक तथ्य भर नहीं रह जाता। यह एक उक्ति बन जाता है जो जीवन के हर पक्ष को देखने की दृष्टि प्रदान करता है। नदी में धंसना सिर्फ़ नदी में धंसना नहीं है। जीवन के हर पल में, हर संघर्ष में धंसना भी है। नरेश सक्सेना इंजीनियर हैं। उन्होंने पैंतालीस बरस की कविता में है। विज्ञान का तर्क जब काव्य तर्क रूपांतरित होता है, तो वह अपने अर्थ और अभिप्रायों विस्तार कर लेता है। यह विस्मय ही उन्हें हमारी स्मृति का स्थायी निवासी बना देता है। विस्मय एक जादुई तत्व है। जादू का जब टूटता है, तो वह एक नयी समझदारी को हमारे भीतर जगा देता है। क्या पुल पर गुजरते हुए और उसके बहती नदी को देखते हुए हमने यह कभी महसूस किया होगा कि हम पुल पर से गुजर रहे हैं? लेकिन समझना और फिर शब्दों में जताना अलग बात है। नरेश जैसे हमें पुल पर से गुजरते हुए रास्ते में पकड़ लेते हैं कहते कि ...पुल पार करने से नदी पार नहीं होती। अचानक अगर यह बात कहे, तो आप पहले तो इस को समझ ही नहीं पायेंगे और समझेंगे तो मानेंगे नहींलेकिन नरेश सक्सेना की छोटी-सी कविता अपनी पंक्तियों में ही जैसे हमारा सारा विभ्रम तोड़ देती है। ताक़त से साथ यह बात हमें समझा देती है कि पुल करने से पुल पार होता है। नदी पार नहीं होती। नदी नहीं होती, नदी में धंसे बिना। यह तर्कजो जीवनानुभव प्राप्त हुआ है, एक काव्य तर्क है। इसलिए यह सिर्फ तथ्य भर नहीं रह जाता। यह एक उक्ति बन जाता है जीवन के हर पक्ष को देखने की दृष्टि प्रदान करता है। में धंसना सिर्फ़ नदी में धंसना नहीं है। जीवन के हर में, हर संघर्ष में धंसना भी है। नरेश सक्सेना इंजीनियर हैं। उन्होंने पैंतालीस बरस इस काम को किया है। उन्होंने लिखा है कि ईंटगिट्टी, सीमेंट, लोहा, नदी, पुल- मेरी रोजी-रोटी साधन रहे हैं। सोच के केन्द्र में रहे हैं। वे मेरी कविता बाहर कैसे रह सकते हैं। यह उनके लिये संयोग नहीं बकायदा चुनाव था। यह बात उल्लेखनीय है कि नरेश सक्सेना भी साठोत्तरी कविता के साथ ही कविता में आये लेकिन साठोत्तरी के कवियों की तरह उनमें भाषा अराजकता और अपव्यय बिल्कुल नहीं है। उनकी कविता कम पंक्तियों की ही नहीं, कम से कम शब्दों कविता भी है। ज़रूरत से ज्यादा वहां कुछ भी नहीं है। वह पुल पर से गुजरते या पुल पर खड़े लोगों नहीं, नदी में उतर कर, उसमें धंस कर उसे पार करने कविता है।