कैब के खिलाफ नौकरशाहों की ‘सविनय अवज्ञा’ का अर्थ..


संसद से पारित नागरिकता संशोधन विधेयक (कैब) के खिलाफ भड़कती आग और इसे लागू करने की मोदी सरकार की जिद के बीच देश में कुछ नौकरशाहों ने भी इसके विरोध में 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' छेड़ दिया है । हालांकि इनकी संख्या बहुत कम है, लेकिन कैब को लेकर उनकी कसक तो उजागर करती ही है। इनमें पहले हैं महाराष्ट्र कैडर के आईपीएस अधिकारी अब्दुर्रहमान। उन्होंने कैब के विरोध में अपनी नौकरी छोड़ने का ऐलान किया है तो दूसरे कर्नाटक कैडर के पूर्व आईएएस शशिकांत सेंथिल हैं। सेंथिल ने केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह को चैलेंज करते हुए चिट्ठी लिखी है कि वे अपने नागरिकता दस्तावेज सरकार को नहीं देंगे। सरकार चाहे तो सजा दे दे। तीसरे हैं मप्र काडर के पूर्व आईएएस हर्ष मंदर। उन्होंने यह बिल राज्य सभा से पास होने के पहले चेतावनी दी थी कि अगर इसे संसद ने पारित किया तो वो मुसलमान बन जाएंगे। लेकिन नागरिकता दस्तावेज नहीं देंगे। नौकरशाहों द्वारा यदा-कदा खुलकर सत्ता का विरोध और इसके लिए अपने सुरक्षित खोल से बाहर निकलकर खम ठोंकना नई भले न हो पर सामान्य बात भी नहीं है। आजादी के आंदोलन के दौरान भी कई आला अफसरों ने आईसीएस की 'शाही' नौकरी को लात मार कर जनभावना के साथ खड़े होने का जज्बा‍ दिखाया था। आज भी अक्सर चुनावों के पहले कई नौकरशाह जनसेवक बनने के लिए लालायित रहते हैं और चुनाव जीत जाने पर व्यवस्था की उसी गाड़ी का गियर बदलते दिखते हैं, जिसे कल तक वह अपने हिसाब से चलाते रहे होते हैं। यह उनका बाह्य रूपातंरण ज्यादा होता है। इसके बावजूद जनभावना के मद्देनजर, नैतिक अथवा किसी सैद्धांतिक मतभेद के आधार पर अखिल भारतीय प्रशासनिक अथवा पुलिस सेवा को अलविदा कहना आसान नहीं है। कुछ लोग ऐसा करते हैं तो इसका कुछ मतलब है। वैसे तो कोई भी मलाईदार नौकरी करना या छोड़ना किसी का भी व्यक्तिगत फैसला है। लेकिन केन्द्र में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरूआत में ही सरकार की नीतियों और कार्य शैली से नाराज नौकरशाहों के इस्तीफों का सिलसिला शुरू हो गया था। पहले यह त्यागपत्र कश्मीर में धारा 370 हटाने के विरोध में थे तो अब नागरिकता संशोधन विधेयक की मुखालिफत में हैं। इसकी ताजा कड़ी महाराष्ट्र कैडर के आईपीएस अर्ब्दुरहमान का इस्तीफा है। अब्दुर्रहमान का कहना है कि 'नागरिकता संशोधन बिल संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। मैं इस बिल की मुखालफत करता हूं। मैंने सविनय अवज्ञा में कल से ऑफिस नहीं जाने का फैसला किया है और मैं अपनी सेवा से इस्तीफा दे रहा हूं।' अपने एक ट्वीट में अब्दुर्रहमान ने कहा है कि नागरिकता संशोधन बिल भारत के धार्मिक बहुलवाद के खिलाफ है। यह बिल संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 25 का उल्लंघन करता है। रहमान मूलत:‍ ‍िबहारी हैं। फिलहाल वे महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग में आईजी हैं। बताया जाता है कि उन्होने चार माह पहले ही 'निजी कारणों' से वीआरएस के लिए आवेदन दिया था, लेकिन केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने नामंजूर कर दिया। कहा यह भी जाता है ‍कि उनके खिलाफ विभागीय जांच चल रही है। हालांकि रहमान इसका खंडन करते हैं। इसी तरह शशिकांत सेंथिल कर्नाटक में डिप्टी कमिश्नर थे, लेकिन उन्होंने भी सैद्धांतिक विरोध के चलते नौकरी छोड़ी। वे कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने से व्यथित थे। शुरूआती सनसनी के बाद सेंथिल चर्चा से बाहर हो चुके थे, लेकिन अब फिर उन्होंने कैब को लेकर चुनौती भरा बयान दिया है। उन्होंने कहा कि वे अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए कोई दस्तावेज सरकार को नहीं देंगे। वह जो चाहे कर ले। उधर पूर्व आईएसएस और लेखक, आरटीआई कार्यकर्ता, मुखर ‍समाजसेवी हर्ष मंदर ने दो दिन पहले कहा था ‍कि अगर कैब राज्य सभा से पारित हो गया तो मैं मुस्लिम नाम धारण कर लूंगा और मांगने पर भी नागरिकता के लिए जरूरी दस्तावेज नहीं दूंगा। इसके लिए जो सजा मिले, मंजूर है। यह सविनय अवज्ञा होगी। हर्ष मंदर की वैचारिक प्रतिबद्धता बहुत साफ है और वे अपनी बात बेबाकी से कहते रहे हैं। हालांकि उन पर एकांगी होने के आरोप भी लगते रहे हैं। इन तीनों ब्यूरोक्रेट्स की बातों से साफ झलकता है कि वे व्यवस्था और सत्ता से असहमत हैं। इनका मानना है कि आज देश में बदलाव के नाम पर जो हो रहा है, वह अनैतिक है और लोकतंत्र की बुनियाद संविधान को नष्ट करने वाला है। इसका एक अर्थ यह है कि ये नौकरशाही में यह सोचकर आए थे कि उन्हें एक संविधानसम्मत व्यवस्था में प्रशासन का काम करना होगा। लेकिन मोदी सरकार और उसके एजेंडे के चलते यह अब मुनासिब नहीं है। लिहाजा नौकरी की मर्यादाअोंको तजकर सीधे मैदानी विरोध पर उतरा जाए। कैब कानून कितना संविधानसम्मत है, कितना असंवैधानिक है, यह अब सुप्रीम कोर्ट तय करेगा। क्योंकि मुस्लिम लीग व कुछ राजनीतिक दल भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं। आरोप यह है ‍कि कैब के तहत धर्म के आधार पर नागरिकता देना संविधान में उल्लेखित मौलिक ‍अधिकारों के खिलाफ है। केवल शरणार्थी गैर मु‍स्लिमों को ही नागरिकता देने की व्याख्या मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता ठुकराने के रूप में जा रही है। सवाल यह भी खड़ा किया जा रहा है कि पड़ोसी मुस्लिम देशों में मुस्लिम भी प्रताडि़त नहीं हो रहे हैं, इसका सरकार के पास क्या आधार है? जबकि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह का कहना है कि यह बिल नागरिकता देने का ‍है न कि नागरिकता छीनने का। यह बिल संविधान की कसौटी पर खरा उतरेगा या नहीं, यह देखने की बात है, लेकिन इसी के समांतर राजनी‍तिक हानि-लाभ को ध्यान में रखकर अर्द्ध सत्य के नए पांसे फेंके जा रहे हैं। पंजाब के मुख्यधमंत्री अमरिंदर सिंह और पश्चिम बंगाल की मुख्यधमंत्री ममता बैनर्जी ने अपने राज्यों कैब लागू न करने का ऐलान कर दिया है। इससे केन्द्र और राज्यों के बीच नया और अवांछित टकराव शुरू हो सकता है, जो कि देश के संघीय ढांचे को बुरी तरह डेमेज करेगा। 'बिटवीन द लाइंस' यह वोट बैंक को बढ़ाने और घटाने का सुनियोजित और जोखिम भरा खेल है। भाजपा इसके बहाने फिर हिंदू वोटों को एकजुट करने में लगी है तो गैर भाजपाई और सेक्युलर दलों को चिंता यह है कि बाहर से आए हिंदू व इतर ( मुसलमानों को छोड़कर) वोट कहीं भाजपा के लिए अंगद का पांव न बन जाएं। दूसरी तरफ शरणार्थी मुसलमानो को नागरिकता न देकर सेक्युलर दलों का वोट बैंक कतरे जाने का डर है। इस चाल का इसका अंतिम राजनीतिक नफा-नुकसान किसको होगा, यह अभी कहना मुश्किल है। लेकिन डर है कि यह खेल देश में एक नए विभाजन की शुरूआत न कर दे, क्योंकि अगर असम और त्रिपुरा में बंगाली शरणार्थियों को स्थायी रूप से बसाया जाता है तो पहले से मौजूद असमी-बंगाली टकराव घातक रूप से ले सकता है और यह टकराव हिंदू-हिंदू के बीच ही ज्यादा होगा। यही स्थिति अन्य राज्यों में भी बन सकती है। रहा सवाल नौकरशाहों के 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' का तो उसका असर आम जनता पर कितना होगा, होगा भी या नहीं कहना मुश्किल है। क्योंकि 'सविनय अवज्ञा' को ऊर्जा नैतिक और आत्मबल से मिलती है। बरसों व्यवस्था की नाव खे कर फिर उसी धारा के खिलाफ तैरना आसान और बहुत विश्वसनीय नहीं होता। फिर भी नौकरशाहों के साहस का नोटिस तो लिया ही जाना चाहिए, यह मानकर कि यह केवल सनसनी फैलाने अथवा कोई राजनीतिक प्रतिफल पाने के लिए नहीं है बल्कि उस दावे पर खरा उतरने के लिए है, जो नैतिकता की रक्षा के लिए किया गया है। देश में नागरिकता संशोधन कानून ( कैब) को कांग्रेस व अन्य गैर भाजपा शासित 6 राज्यों ने अपने यहां लागू करने से इंकार कर दिया है। इन राज्यों के मुख्यनमंत्रियों का कहना है कि यह कानून असंवैधानिक है तथा देश को धार्मिक आधार पर बांटने वाला है। उधर कैब को लेकर विरोध की आंच अब पूर्वोत्तर से उत्तर भारत में भी फैलने लगी है। मोदी सरकार इस बढ़ते विरोध के चलते परेशानी में तो है, लेकिन वैसा दिखा नहीं रही। उसका अभी भी मानना है कि कैब का यह विरोध तात्कालिक है, लेकिन दीर्घ काल में इससे उसका बहुसंख्यक वोट बैंक और मजबूत होगा। लेकिन इस राजनीतिक गुणा-भाग के बीच असल सवाल यह है कि क्या राज्य केन्द्र के किसी कानून को इस तरह लागू करने से इंकार कर सकते हैं? क्या संविधान ने उन्हें ऐसा अधिकार दिया है? अगर नहीं है तो राज्य प्रमुख ऐसे बयान देकर क्या संदेश देना चाहते हैं? यह केवल सियासी शोशेबाजी है या फिर यह मोदी सरकार की दबंगई से सचमुच दो-दो हाथ करने की तैयारी है भले ही इससे केन्द्र राज्य सम्बन्धोंह की पवित्रता का उल्लंघन हो? ध्यान रहे कि भारतीय संविधान में भारत को 'राज्यों का संघ' कहा गया है न कि संघवादी राज्य। अर्थात संविधान में राज्यों के महत्व और अधिकारों को मान्य तो किया है, लेकिन एक मर्यादा तक। जहां तक केन्द्र और राज्य सरकारो के बीच कानून बनाने के अधिकारों की बात है संविधान के अनुच्छेद 245 से 255 तक इसकी विस्तार से चर्चा है। संविधान में कानून बनाने की प्रक्रिया से सम्बन्धित तीन सूचियों की व्यवस्था है। पहली सूची में कानून बनाने के केन्द्र के क्षेत्र और अधि कारों की व्याख्या है। इसमें सेना, मुद्रा, बैंकिंग सहित सौ विषय शामिल है, जिनमे नागरिकता और राष्ट्रीयता भी है। अर्थात इन मामलों में कानून केवल केन्द्र ही बना सकता है। दूसरी सूची में राज्य पुलिस, स्थानीय प्रशासन, खेती आदि के बारे में अपने कानून बना सकते हैं। तीसरी समवर्ती सूची है, जिसमें शिक्षा, वन, व्यापार, स्वास्थ्य, ‍िबजली आदि मामलों में केन्द्र और राज्य दोनो ही अपने कानून बना सकते हैं। इसी के साथ संविधान के अनुच्छेद 249 में स्पष्ट कहा गया है कि राज्यों के कानून की सूची में अगर कोई केन्द्र का कानून है और अगर यह राज्य सभा में दो तिहाई या उससे ज्यादा बहुमत से पारित होता है तो केन्द्र का कानून ही वहां लागू होगा न कि राज्य का। इसका सीधा मतलब है कि राज्यों के अधिकारों को मानते हुए भी केन्द्र की सर्वोच्चता को कायम रखा गया है, क्योंकि देश की एकता अखंडता सर्वोपरि है। वैसे केन्द्र-राज्य के बीच कानून लागू करने को लेकर टकराव नया नहीं है। कुछ माह पहले केन्द्र सरकार द्वारा लागू नए मोटर व्हीकल अधिनियम में भारी जुर्माने के प्रावधान को अभी भी मध्यप्रदेश सहित कई राज्यो ने लागू नहीं किया है। यह भी इसलिए संभव है, क्योंकि मोटर व्हीकल कानून समवर्ती सूची में है। लेकिन नागरिकता कानून का मामला बिल्कुल अलग इसलिए है कि यह विषय पूर्णत: केन्द्र की सूची में है। नागरिकता और राष्ट्रीयता प्रदान करना, उसके बारे में कानून बनाना पूरी तरह केन्द्र सरकार का ‍अधिकार है। फिर भी कुछ राज्यों ने इसे लागू न करने का ऐलान किया है तो इसके पीछे राजनीतिक तकाजे ज्यादा लगते हैं। केरल के मुख्यामंत्री पी. विजयन ने कहा कि उन्हें यह कानून स्वीकार नहीं है। इसी तर्ज पर बंगाल, केरल, पंजाब के बाद अब महाराष्ट्र व मप्र सरकारों ने भी संकेत दिया है कि वे कैब कानून को अपने यहां लागू नहीं होने देंगे। इस सूची में छत्तीसगढ़ और राजस्थान भी शामिल हो सकते हैं। ये सारे राज्य मिला दिए जाएं तो देश की कुल आबादी का लगभग 40 फीसदी होते हैं। यहा मुद्दा यह है कि जब कैब की संवैधानिकता की परीक्षा सुप्रीम कोर्ट में होनी है तो ये राज्य और राजनीतिक दल इसे अपने यहां लागू क्यों नहीं होने देना चाहते? क्योंकि अगर कैब कानून कोर्ट में ही नहीं टिक पाया तो उसे न लागू करने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। अगर कोर्ट ने इसे संवैधानिक ठहराया तो फिर ये राज्य क्या करेंगे? क्या वे टकराव को उस हद तक ले जाना चाहेंगे कि जिससे देश का आईना संवैधानिक रूप से टुकड़े-टुकड़े होता दिखे? ऐसा हुआ तो देश के लिए यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी। क्योंकि ऐसा होने की स्थिति में संविधान ने केन्द्र को विशेषाधिकार भी दिए हैं कि वह राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल होने की बुनियाद पर सम्बन्धित सरकारों को भंग भी कर सकती है। तो फिर इस कानून के सड़कों पर विरोध के क्या मायने हैं? यह सही है कि जनभावना को लाॅक अप में डालकर कोई सरकार या कानून चल नहीं सकता। जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, उन्हें समझाने की कोई गंभीर कोशिश भी दिखाई नहीं दे रही है। यानी मोदी सरकार यह मानकर चल रही है ‍कि विरोध और हिंसा प्रायोजित ज्यादा है। इससे उसकी सेहत पर कोई असर नहीं होना है, क्योंकि कानून बहुसंख्यकों की भावना को पोषित करने वाला है। केन्द्र सरकार कांग्रेस पर तो आरोप लगा रही है कि वह जानबूझकर कैब की गलत व्याख्या कर रही है, लेकिन वह खुद भी इस कानून को लेकर संभ्रम और आशंकाअों के धुंध को साफ करने के लिए उत्सुक नहीं लगती। जहां तक विपक्षी दलों की रणनीति का प्रश्न है तो संसद में इस कानून को रोक पाने में नाकाम रहने के बाद उनके पास विरोध को पहाड़ों की वादियों से लेकर मैदानों तक फैलाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। विपक्ष का मानना है कि जनदबाव ही सरकार को झुका सकता है। यह संदेश देने की पुरजोर कोशिश है कि भारतीय लोकतंत्र अब सेक्युलर नहीं रहा। कैब के संदर्भ में भारतीय मुसलमानो और शरणार्थी मुसलमानो को एक तश्तरी में रखा जा रहा है। दूसरी तरफ मोदी शाह का ‍गणित साफ है कि मुसलमानो के हक में जितनी आवाज उठेगी, बहुसंख्यक वोटों का दही अपने आप जमता चला जाएगा। इससे देश के ताने-बाने में बदलाव हो तो भी उन्हें इसकी परवाह नहीं है। क्योंकि जो उनका वास्तविक लक्ष्य है, वह पूरा हो रहा है। यकीनन आज देश, हमारा लोकतंत्र, संवैधानिक तकाजे एक नए और कठिन दौर में हैं। राजनीति की बिसात बिछाने और उस पर पांसे फेंकने के अंदाज बदल गए हैं। जो हो रहा है, किया जा रहा है, उसका औचित्य-अनौचित्य भावी इतिहास तय करेगा। लेकिन आज इस संगीन सवाल का जवाब कौन देगा कि राजनीति का यह खेल देश की कीमत पर खेला जाना कितना सही है?


बांग्ला देशी विदेश मंत्री के 'सौजन्यपूर्ण'  बयान में छिपी आशंकाएं.. 


देश में नागरिकता संशोधन कानून (कैब) पर मचे बवाल के बीच एक खबर यह आई कि बांग्ला देश के विदेश मंत्री डाॅ. ए.के. अब्दुल मोमिन ने भारत से कहा है कि अगर कोई भी बांग्लादेशी अवैध रूप से वहां रह रहा है तो बताएं, हम उसे वापस बुलाएंगे। डॉ. मोमिन ने यह बात बांग्ला देश की राजधानी ढाका में भारतीय उच्चायुक्त के साथ बैठक के बाद कही। उन्होंने भारत के साथ बांग्ला देश के 'मधुर' सम्बन्धों का हवाला देते हुए कहा कि निराशा की कोई बात नहीं है। बांग्ला देश के नागरिकों को स्वदेश लौटने का अधिकार है। डाॅ. म‍ोमिन ने एक बात और कही कि जो भारतीय बांग्ला देश में अवैध रूप से रह रहे हैं, उन्हें भारत भेजा जाएगा। हालांकि उन्होंने कैब पर कोई भी टिप्पणी करने से इंकार कर दिया। मीडिया से चर्चा के दौरान डाॅ. मोमिन ने दावा भी किया कि भारतीय नागरिक बांग्लादेश में भारत की तुलना में अच्छी अर्थव्यवस्था और मुफ्त भोजन के लिए आ रहे हैं। जो यहां आ रहे हैं, उन्हें नौकरियां मिल रही हैं। कुछ बिचौलिए भारतीय गरीबों को समझाते हैं कि बांग्ला देश में मुफ्त खाना मिलता है। ये वही डाॅ. मोमिन हैं, जिन्होंने कैब कानून संसद में पारित होने के बाद भारत में शुरू हुए हंगामे के बाद अपना भारत दौरा रद्द कर ‍िदया था। यह सही है कि जबसे बांग्ला देश में शेख हसीना की सरकार सत्ता में है, भारत-बांग्ला देश के रिश्ते तुलनात्मक रूप से काफी अच्छे और समझदारीपूर्ण हैं। कुछ विवाद हुए भी हैं तो उन्हें बैठकर सुलझा लिया गया है। लेकिन दूसरी तरफ भारत के गृह मंत्री अमित शाह द्वारा संसद में बांग्लादेश में हिंदुअों के उत्पीड़न का ‍िजक्र किए जाने के बाद हसीना सरकार पर वहां के विपक्ष ने हमले तेज कर ‍िदए हैं। बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनल पार्टी के महासचिव मिर्ज़ा फ़खरुल इस्लाम आलमगीर ने कहा कि भारत के असम राज्य में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) से बांग्लादेश की आजादी और संप्रभुता को ख़तरा है। क्योंकि यह यह न सिर्फ बांग्ला देश पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को अस्थिर कर देगा। यह संघर्ष और हिंसा को बढ़ावा देगा। अालमगीर के बयान को अतिरंजित मानकर अलग रखें तो भी वहां के विदेश मंत्री ने जो कहा है, उस पर गौर जरूरी है। पहली नजर में डाॅ मोमिन का बयान सौहार्दपूर्ण और वाजिब लगता है क्योंकि जो बांग्ला देशी अवैध तरीके से भारत में आए हैं, भारत अगर उन्हें लौटाता है तो बांग्ला देश उन्हें वापस ले लेगा। लेकिन तब, जब भारत इसकी सूची विधिवत बांग्ला देश को देगा। बांग्ला देश की आबादी वास्तव में कितनी है, इसके बहुत विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के ताजा डाटा के मुताबिक बांग्ला देश की जनसंख्याे लगभग 16 करोड़ 29 लाख है। इनमें भी सबसे बड़ा अल्पसंख्य6क समुदाय हिंदू है, जिसकी आबादी करीब 1 करोड़ 30 लाख है। कुछ बौद्ध और ईसाई भी हैं। 90 फीसदी अाबादी मुसलमान है। उल्लेखनीय है कि 1971 में बांग्ला देश मुक्ति संग्राम के दौरान करीब 1 करोड़ बांग्ला देशी ( तब पूर्व पाकिस्तानी) उत्पीड़न के चलते भागकर भारत आ गए थे। भारत की मदद से बांग्ला देश आजाद होने के बाद कई वापस चले गए, लेकिन करीब 15 लाख शरणार्थी तब भी भारत में रहे। इनमें बड़ी संख्या हिंदुअो की थी। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हैं कि वर्तमान में भारत में बांग्ला देशी शरणार्थियों की कुल संख्या कितनी है और इसमें कितने हिंदू हैं। क्योंकि बांग्ला देशी मुसलमान भी भारत में अवैध रूप से बरसों से रह रहे हैं। नए कानून के तहत अगर उनके पास कोई वैध दस्तावेज नहीं होंगे तो उन्हें बांग्ला देश वापस भेजा जाएगा। फिलहाल बांग्ला देशी हिंदू शरणार्थियों को लेकर अलग-अलग आंकड़े दिए जा रहे हैं। मसलन असम कृषक मुक्ति संग्राम के सलाहकार अखिल गोगोई के अनुसार राज्य में करीब 20 लाख बांग्ला देशी हिंदू रह रहे हैं, जबकि राज्य के उप मुख्यणमंत्री और भाजपा नेता हिमंत बिस्वा सरमा यही आंकड़ा 8 लाख बताते हैं। इनके अलावा बड़ी संख्या में बांग्ला देशी शरणार्थी त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल मंआ भी रह रहे हैं। बहरहाल बांग्ला देश के विदेश मंत्री के बयान को समझें। पहली नजर में यह बयान सौजन्यता भरा लगता है। इसलिए क्योंकि पहले तो बांग्ला देश यह मानने को ही तैयार नहीं था ‍िक उसके नागरिक भारत में अवैध रूप से रह रहे हैं। लेकिन कैब के बाद उसने इतना तो माना कि अगर कोई अवैध बांग्ला देशी नागरिक भारत में है तो बांग्ला देश उसे वापस लेने को तैयार है। अगर सच में ऐसा हुआ तो भारत जिन अवैध मुस्लिम बांग्लादेशियों को वापस भेजना चाहता है, उनकी घर वापसी सुगम हो जाएगी। और ऐसा करने में किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन इस सौजन्यपूर्ण बयान में जो खतरे छिपे हैं, उस पर शायद किसी का ध्यान नहीं है। अगर भारत में अवैध रूप से रह रहे बांग्ला देशी मुसलमान शरणार्थियों को बांग्ला देश ने वापस लेना शुरू किया तो कल को बांग्ला देश में बाकी बचे हिंदुअों का उत्पीड़न तेज हो सकता है। इस आधार पर ‍कि जब भारत हिंदुअों को ले ही रहा है तो क्यों न बाकी हिंदुअों को भी वहां रवाना कर दिया जाए। इस बात की क्या गारंटी है कि जो मुसलमान यहां से निकाले जाएंगे, वो स्वदेश लौटने के बाद वहां जाकर चुपचाप दाल-रोटी खाने लगेंगे। दुर्भाग्य से ऐसा हुआ तो धर्म के आधार पर देश के विभाजन का दूसरा और अंतिम चरण शुरू हो जाएगा। फिर से बड़े पैमाने पर धर्म की बुनियाद पर लोगों की अदलाबदली शुरू होगी और यह शांतिपूर्ण और राजी खुशी से होगी इसका दावा कोई नहीं कर सकता। हालांकि अभी यह मान लेना जल्द बाजी होगी कि बांग्ला देश के सारे हिंदू भारत आना चाहेंगे। क्योंकि बांग्ला देश नहीं मानता कि उनके यहां ‍अल्पसंख्यंक हिंदुअोंका उत्पीड़न हो रहा है। वहां के विदेश मंत्री डाॅ.मोमिन ने सफाई के तौर पर कहा कि 'बांग्लादेश में हमारी सरकार में अल्पसंख्यकों का कई उत्पीड़न नहीं हुआ। हां, सैन्य शासन और अन्य सरकारों के कार्यकाल में अल्पसंख्यकों का छोटे स्तर पर उत्पीड़न हुआ है।' ध्यान रहे कि बांग्लादेश और म्यांमार के बीच पिछले साल एक समझौता हुआ है, जिसमें वह 20 लाख रोहिंग्या मुसलमानो को वापस लेने को तैयार हुआ है। हो सकता है कि कुछ लोग बांग्ला देश में वहां के हिंदुअों के उत्पीड़न की आशंकाअोंको काल्पनिक मानें। लेकिन अगर भविष्य में बांग्ला देश में रह रहे हिंदुअों व बौद्धों को भारत भेजने को लेकर आंतरिक दबाव बढ़ा ( क्योंकि वहां शेख हसीना की सरकार हमेशा तो रहेगी नहीं ) तो फिर समस्या कितनी गंभीर होगी, इसे समझा जाना चाहिए। इस बात की भी गहराई से तफ्तीश जरूरी है कि वो कौन लोग हैं, जो आज रोजगार की तलाश में भारत से बांग्ला देश जा रहे हैं? और वहां सब कुछ इतना अच्छा है तो भारत में बांग्लादेशी ( मुस्लिम भी) भारत में रहना क्यों चाह रहे हैं? बेशक, मोदी सरकार का कैब कानून आज हमे तीन पड़ोसी देशों में प्रताडि़त गैर मुस्लिमो को भारत में शरण देने की मानवीय पहल महसूस हो रहा है, लेकिन एक समाधान में भविष्य की‍ कितनी समस्याएं छिपी हैं या होंगी, इसका अंदाज किसी को नहीं है। है भी तो हम उसे अनदेखा करना चाहते हैं। यह हर्षोल्लास की घड़ी है या आत्म मंथन की, जरा सोचें !


*अजय वोकिल ,लेखक  वरिष्ठ पत्रकार हैं